जी-20 की दो मंत्रिस्तरीय बैठकें- बेंगलुरु में वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक के गवर्नरों (एफएमसीबीजी) तथा दिल्ली में विदेश मंत्रियों की बैठक (एफएमएम)- यूक्रेन युद्ध पर किसी आम सहमति के बगैर ही संपन्न हो गई हैं। ऐसे में राजनयिकों और जी-20 के अधिकारियों को जी-20 की अध्यक्षता पर सरकार की रणनीति का एक जायजा लेने के लिए थोड़ा ठहरना होगा। एफएमसीबीजी 20 सबसे उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के बीच “वित्त ट्रैक“ यानी वित्तीय संवाद का अहम हिस्सा है, जिसे 1999 में एशियाई वित्तीय संकट के बाद वैश्विक आर्थिक समन्वय में मदद करने के लिए शुरू किया गया था। संवाद का दूसरा मार्ग “शेरपा ट्रैक“, जी -20 के लक्ष्य निर्धारण प्रक्रिया पर केंद्रित है। रूस-पश्चिम विभाजन को पाटने के लिए पिछले साल इंडोनेशिया में भारत को जो अनुभव हासिल हुआ था, उसके आईने में गतिशील भू-राजनीतिक बदलावों के बीच जी-20 की अध्यक्षता में आने वाली चुनौतियों की तस्वीर भारत के समक्ष साफ होनी चाहिए थीं। बेंगलुरु में, हालांकि, आश्चर्य तब हुआ जब रूस और चीन ने यूक्रेन युद्ध पर उस भाषा को स्वीकार करने से इनकार कर दिया जिस पर वे सिर्फ तीन महीने पहले सहमत हुए थे। नतीजतन, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को संयुक्त वक्तव्य के बजाय केवल एक अध्यक्षीय सारांश और परिणाम दस्तावेज जारी करने के लिए मजबूर होना पड़ा। सरकार ने उन पैराग्राफ को भी शामिल करने का फैसला किया जिन पर रूस और चीन ने आपत्ति जताई थी। उन अंशों को दोनों के नाम के साथ शामिल किया गया। यह पिछले साल की तरह एक नजीर है, जब शीर्ष नेतृत्व और एफएमसीबीजी के स्तर पर अध्यक्ष इंडोनेशियाई की ओर से जारी संयुक्त वक्तव्य में “कई“ और “अधिकांश“ देशों की भावनाओं को व्यक्त किया था। बेंगलुरु में संयुक्त वक्तव्य जारी न हो पाने की स्थिति में यह आश्चर्यजनक नहीं था था कि सरकार ने एफएमएम के स्तर पर एक संयुक्त बयान जारी करने के लिए वार्ता का विकल्प चुना। इसके बावजूद विदेश मंत्री एस. जयशंकर को भी बाली में जारी दो पैरा पर मतभेदों का हवाला देते हुए अध्यक्षीय सारांश और परिणाम दस्तावेज से ही संतोष करना पड़ा। ऐसा पहली बार हुआ है क्योंकि एफएमएम ने बयान जारी करने का कोई प्रयास नहीं किया है।
इन दोनों बैठकों से भारत की अध्यक्षता में जी-20 की प्रक्रिया की शुरुआत मुश्किल दिखती है, लेकिन सितंबर में शीर्ष नेतृत्वस्तरीय शिखर सम्मेलन तक अभी लंबा रास्ता तय करना है। जयशंकर ने कहा है कि दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों के लिए खाद्य, ऊर्जा सुरक्षा और ऋण प्रबंधन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों से संबंधित अधिकांश बयानों को सुलझा लिया गया है। दूसरा, यह स्पष्ट है कि भारत बाली शिखर सम्मेलन की भाषा पर भरोसा नहीं कर सकता है, इसलिए शेरपाओं को यूक्रेन आम सहमति कायम करने वाली नई भाषा तलाशनी होगी। इसके लिए बाली दस्तावेज में प्रयुक्त भाषा पर रूस की शिकायतों सहित रूस के कृत्यों की निंदा संबंधी पश्चिम की आकांक्षाओं को ध्यान से सुनना होगा और रचनात्मक सूत्रीकरण का सहारा लेना होगा। इस बार मेजबान के रूप में ‘हॉट-सीट‘ पर भारत बैठा है। लिहाजा, उसे समूह के भीतर उन देशों को शामिल करने का लाभ मिलेगा जो जी -7, अमेरिकी नेतृत्व वाले विकसित जगत और रूस-चीन के मजबूत गठजोड़ वाले तनावग्रस्त धड़ों से इतर हों, ताकि बीच का एक रास्ता निकाला जा सके।
This editorial has been translated from English, which can be read here.
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